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बिहार में अपराध वृद्धि क्यों ?

sanjay
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downloadबिहार में रहने वाले लोगों का मिजाज ही कुछ अलग है। यह राज्य अपराध को लेकर बदनाम होता रहा है। किसी ने इसके कारणों को तलाशने की जरूरत नहीं समझी। लेकिन बढ़ते अपराध को लेकर सब चिंतित हैं। हाल में ही राजधानी में पुलिस अधिकारियों की बैठक आयोजित कर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अधिकारियों की बैठक कर बढ़ते अपराध पर चिंता जाहिर की। उनकी सबसे अधिक चिंता इस बात को लेकर थी कि पुलिस पर छोटी-छोटी बातें को लेकर लगातार हमले हो रहे हैं। पुलिस के सरकारी वाहनों को लगातार क्षतिग्रस्त किया जा रहा है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही पुलिस व्यवस्था में बदलाव की आवश्यकता महसूस की जाने लगी थी। लेकिन उसे अब तक नया रूप नहीं दिया जा सका है। पुलिस आज भी अपराध नियंत्रण के लिए पुराने तरीकों का ही इस्तेमाल कर रही है।
आपराध बढऩे के कई कारण हैं। इनमें सबसे बड़ा कारण जनसंख्या वृद्धि है। उनके पास रोजगार के अवसर कम हैं। ऐसे कुछ लोग अपराध को ही रोजगार मान बैठते हैं। दूसरा सबसे बड़ा कारण कानून का लचीला होना है। अपराधियों के मन से कानून का भय समाप्त हो गया है। अधिकांश अपराधी जघन्य आपराधिक घटनाओं को अंजाम देने के बाद भी जमानत पर छूट जाते हैं। छूटने के बाद भी मुकदमे की पैरवी के लिए ऐसे लोगों को लंबा खर्च करना पड़ता है। खर्च कहां से आए, उनके सम्मुख यह एक बड़ी समस्या बनकर पेश आती है। इस कारण वे फिर अपराध करने लग जाते हैं।
बिहार के ग्रामीण जीवन पर भी इस्ट इंडिया कंपनी की गहरी छाप है। उस जमाने में लगान वसूली के लिए शक्ति का प्रदर्शन किया जाता था। लठैतों के खिलाफ किसी को बोलने की हिम्मत नहीं हो पाती थी। बिना पूंजी लगाए मालिकों के घर अनाज की खेप पहुंच जाती थी। फलत: जमींदार का परिवार बिना कुछ किए मौज की जिंदगी जीता था। गरीब फटेहाल बने रहते थे। इससे सामाजिक विषमता बढ़ती गई। किसी ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद राजनीतिक मुक्ति की लड़ाई न रह कर यह लड़ाई सत्ता के वर्चस्व की हो गई। नेता बड़े पैमाने पर बूथ लूटेरों के पैरोकार बन गए। पंचायत से लेकर संसद के चुनाव का हाल यही हो गया। इसके बाद बूथ लूटेरे भी राजनीति में अपना भाग्य आजमाने लगे। इससे कानून व्यवस्था में ज्यादा गिरावट आई। ग्राम पंचायतों का महत्व कम हो गया। गांव के चौकीदारों को बंधुआ मजदूर समझा जाने लगा। पुलिस के पास ग्रामीण इलाकों में होने वाले आपराध का सूचना तंत्र ही नष्ट हो गया।
इन सबके अलावा पुलिस के आलाधिकारियों के गुटबाजी और खेमेबाजी में उलझे होने व पुलिस बल की कमी भी अपराध को नहीं रोक पाने का एक बड़ा कारण है। अगर विश्व के दूसरे देशों के आंकड़ों को देखें तो पता चलेगा कि अपने देश में जनसंख्या के अनुपात में पुलिस बलों की संख्या बहुत कम है। जापान में प्रति लाख की आबादी पर 182, इटली में 559 और कुवैत मे 1116 है,जबकि भारत में यह अनुपात अपेक्षाकृत काफी कम है। भारत में प्रति लाख आबादी पर पुलिस बल की संख्या औसतन 126 है। राज्यों की स्थिति तो और भी ज्यादा बदहाल है। बिहार, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश की स्थिति तो और भी ज्यादा बदहाल है। यहां प्रति दस हजार की आबादी पर मात्र आठ या दस पुलिस वाले तैनात हैं। ऐसी स्थिति में भला अपराध नियंत्रण कैसे संभव है।

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