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समय बदला, मान्यताएं बदली, मंतव्य बदलने की कोशिश की जा रही है। बिडंबना देखिए कि 18वीं सदी की अग्रसर भारतीय समाज की स्थिति वैसी ही है। विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों के पिछड़े इलाकों और छोटे कस्बानुमा शहरों में बाल विवाह संपन्न किए जाते हैं। कानूनन बालिग होने से पूर्व लड़की-लड़की का विवाह कराया जाना दंडनीय अपराध है। बाल विवाह के दुष्परिणाम से अवगत कराने की हर संभव कोशिश सरकारी स्तर पर की जा रही है। गैर सरकारी सामाजिक स्वैच्छिक संगठन भी शोषित सोच के विरुद्ध जनचेतना को प्रतिबद्ध दिखते हैं। बावजूद लड़कियों के प्रति कुंठित सोच आज भी जारी है। आज भी लड़की के जन्म पर खुशियां हृदय से नहीं निकलतीं। आधुनिकता के नित्य नए सरोकार प्रगतिकारी आयामों को रचती लड़कियों के तेवर कुछ के दकियानूसी सोच को नहीं मानते। उन कुछ एक कूपमंडूकों के लिए लड़कियां आज भी कलंक का काला टीका ही नहीं आती हैं। उन जैसों को लड़कियां पत्थर की सील की तरह को रहने की सुचिता में भली लगती हैं। यही वजह है कि बोझ जैसी लगने वाली बच्चियों को यथाशिध्र शादी कर निपटा देने में कुल की कुशलता मानते है। भले ही मानसिक और शाररिक तौर पर अपरिपक्व बच्चियों के हंसने-खेलने की उम्र हो। भले ही बच्चियां सही से नाड़ा बांधना नहीं सीख पाई हो, शारीरिक परिवर्तन के तथ्य पर पूर्णत: परिचित नहीं हो पाई हों। सार यह है कि कच्ची उम्र में सात फेरे लेकर अत्याचार की शिकार बनती लड़कियों की दर्दनाक दास्तान अपने परिजन सगे संबंधी ही लिखते है। अठारवीं सदी के उस विषय काल में राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, सावित्री बाई फूले, केशव चंद्र सेन जैसे समाज सुधारकों व प्रेमचंद्र, शरतचंद्र जैसे साहित्यकारों के प्रयास से इस अभिशाप का सिलसिला बाधित तो हुआ, किंतु आज तक खत्म नहीं हो सका। बाल विवाह की ऐसी घटनाएं कमोवेश आज भी कहीं चोरी-छिपे तो कहीं दबंगई से आयोजित होती हंै। यह सामूहिक शर्म का विषय है। सभ्य समाज के मुंह पर तमाचा है। गांव-समाज में सब कुछ जानते हुए भी विवाद के भय से लोग चुप्पी मारकर बैठे देखते रहते हैं। विरोध करने का जोखिम उठाना नहीं चाहते हैं। यह पौरुष की नपुसंक तटस्थता वस्तुत: समाजिक होने की जिम्मेदारियों से मुंह चुराना ही तो है। सभ्य और संवेदनशील नागरिक होने के गौरव में इतराने के लिए थोथी दलीलें और छद्म बौद्धिकता के मुखौटे उतारकर आगे आना होगा और अपने सामाजिक कर्तव्यबोध के प्रति ईमानदारी से भूमिका निभानी होगी। इस समय की यही जरूरत है और हमारी जिम्मेदारी बनती है। नाबालिग कन्याओं को समय पूर्व शोषण और प्रताडऩा से मुक्ति की दिशा में आगे आएं और ऐसे किसी भी बाल विवाह से जुड़े कुरूप संभावनाओं को पनपने ना दें।
नारी तुम केवल श्रद्धा हो- जयशंकर प्रसाद ने नारी जाति को सभ्यता के शीर्ष पर बिठाया। उसी नारी जाति के बिरवे को अमानवीय सामाजिक शुचिता की जंजीरों को बांधकर तिल-तिल मुरझाने-जलने और बुझ जाने का कुकृत्य इस देश में प्रचलन में है। धिक्कार की पराकाष्ठा है बाल विवाह।
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