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हर समाज की मानसिकता जो औरतों के प्रति है, वह आज भी है और आदिम काल में भी था। हालांकि शहरी क्षेत्र में रहनी वाली महिलाएं अपने अधिकार को लेकर सजग हुई हैं। वह इसके लिए संघर्ष भी कर रहीं हैं। हमारा समाज महिलाओं को स्वतंत्र नहीं देखना चाहती है। देश में शिक्षा का माहौल बना है। लड़कियां भी स्कूल,कॉलेज जाने लगी हैं। इसके साथ ही खतरे भी बढ़े हैं। आज हालात यह है कि देश की हर तीसरी लड़की यह स्वीकार करने में जरा नहीं घबराती है कि उसके साथ यौन हिंसा की घटनाएं घटित हुई है। इस लिए यह कहा जा सकता है कि यह सवाल शिक्षा से ज्यादा मानसिकता का है। यह सवाल सामाजिक सोच का भी है। जब तक महिला और पुरुष को बराबरी का दर्ज नहीं मिलेगा,तब तक यह सोच जारी रहेगा। महिलाओं को इसका खामियाजा भुगतना ही पड़ेगा। जब तक महिलाओं को सत्ता,शासन और संपत्ति में भागीदारी नहीं मिलेगी,तब तक स्थिति बदलाव संभव नहीं है। कुछ क्षेत्रों में महिलाओं को आरक्षण दिए जाने से स्थिति में बदलाव भी आया है। परिवार में अब भी मालिकाना हक पुरुषों के पास है। कठोर सच्चाई यही है कि देश में महिलाओं को वास्तविक अधिकार-भाव देने के लिए जिस राजनीतिक सशक्तीकरण की जरूरत है,वहां आकर एक अटूट सी दिखने वाली दीवार खड़ी हो जाती है। तमाम राजनीतिक दलों को में इस मुद्दे पर एक अघोषित आम सहमति नजर आने लगती है। स्त्री विषयक जितने कानून बने हैं,उनसे उनका घरेलू और निजी जीवन अधिक अशांत हुआ है। यह बात अक्सर कही जाती है और एक स्तर पर यह बात सच भी है। पंडित रमाबाई के वक्त विधवाओं को सम्पति में हिस्सा मिले। यह कानून पारित हुआतो ससुराल वाले चिढ़े,जेठ और देवर भी नाराज हो गए। परिणामस्वरूप विधवाओं को ससुराल में रहना मुश्किल हो गया। इसको लेकर पूरे देश में बवाल हुआ। बड़े-बड़े लोगों को सामने आना पड़ा। इस बवाल के कारण मातृशक्ति के उपासक स्वामी विवेकानंद भी परेशान हो गए। उन्होंने भी तब के अखबारों में यह बयान दे दिया कि भारतीय स्त्रियां त्याग की प्रतिमूर्ति होती है। उन्हें भौतिक वैभव से क्या लेना। यह आवश्यक है कि महिला यह जाने कि आखिर न चाहने वाले कौन है। वे ताकतें कौन है,जिन्होंने महिलाओं को वास्तविक सशक्तीकरण से रोक रखा है,और आखिरकार वे इतने मजबूर क्यों है। बराबरी में आने के लिए इसकी तैयारी नए सिरे से शुरू करनी होगी।
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